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वापसी / अशोक कुमार पाण्डेय / मार्टिन एस्पादा

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चालीस साल पहले हालबे में मेरा खून बहा था
आधी रौशनी चमक रही थी ईंटों पर
जैसे फरिश्ता हो सरकारी घरों का
उस रात मैंने पुकारा और आवाज सुनी हर दरवाजे की
1966 में टेलीविजन पर एक युद्ध हुआ था

मेरी देह से फर्श पर टपक रहा था खून जैसे रिसता हो तेल देह की मशीन से
मेरी खोपड़ी की चोट से बह रहा था खून
दोनों हाथों से झाग की तरह लगा था खून, खून से खराब हो गये थे मेरे जूते

गली में मेरे सर में गोली मारी थी जिस लड़के ने
उसने अपने भागते पैरों में दम भर खून भर लिया
मैंने हर दरवाजे पर लगाई गुहार मदद के लिए
और फिर पूरे रस्ते प्लेग की तरह फैलाते हुए अपने पैरों के खून से सने धब्बे
लौटा अपने घर फ्लैट नम्बर 14-थ्
चालीस साल बाद, मैं खड़ा हूँ हालवे में
इतना थका है सरकारी घरों का फरिश्ता कि क्या स्वागत करता मेरा
मेरे हाथ धकेलते है फ्लैट नंबर 14-थ् के दरवाजे
जैसे एक आक्टोपस चिपका हो अक्वेरियम के शीशे से
खून बजता है नगाड़े-सा मेरे कानों की लौ पर
सुनो हर दरवाजे को: टेलीविजन पर एक युद्ध चल रहा है