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गंगा के तीन रूप / नज़ीर बनारसी

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वह डूबा सूरज वह दिल ने झुक कर बढ़ा दिया रौशनी का डेरा
वह रख के काँधे पे काली कमली हर इक तरफ़ से उठा अँधेरा
उदासियाँ बढ़ के चार जानिब लगाये जाती हैं अपना फेरा
लुटेगा अब साँझ का भी जे़वर है घात में रात का लुटेरा

समय ने करवट बदल-बदलकर जो सूनी कर दी हैं सारी राहें
तो साँस ले-ले के लम्बी-लम्बी हवाएँ भरने लगी हैं आहें

ये सुरमई पहने आये रजनी नज़र से छिपने लगा किनारा
है दूर बिजली के चन्द खम्बे, निगाह को कैसे दें सहारा
इधर ख़मोशी, उधर ख़मोशी, ख़मोश मौजें, ख़मोश धारा
पलट के ाअयी पुकार मेरी किसी को मैने अगर पुकारा

मैं अपने दिल को उभारता हूँ, मगर समाँ दिल डुबो रहा है
पड़ा है गंगा के पार रेता कि अज़दहा कोई सो रहा है

वह चमचमाते कलश का आलम, वह सर उठाये-उठाये मन्दर
वह इतने ऊँचे कि जिन पे अपनी नज़र उठाते हुए उठे सर
है कान में कुछ मधुर सदाएँ, नज़र में शैन आरती का मंज़र
पवित्रता की वह मौज जिससे अँधेरा दिल हो उठे उजागर

इधर दबे पाँव नींद आयी, गयी वह गंगा की बेक़रारी
किवाड़ मन्दिर के बन्द करके अभी-अभी सो गया पुजारी

बुझाी-बुझी-सी दिखाई देने लगी हैं जलती हुई चिताएँ
दबी-दबी सी है अग्नि ज्वाला, हैं सर्द-सी मौत की सभाएँ
फ़िज़ाओं में टूटकर गगन से यह गिरती पड़ती है तारिकाएँ
कि साधनालोक तोड़ने को उतरती आती है अप्सराएँ

वह काला-काला-सा नाग जैसे हर इक तरफ़ झूमता अँधेरा
समय की वह साँय-साँय जैसे बजाये तुमड़ी कोई सँपेरा

कभी जो चुपचाप मुझको देखा कुद और भी प्यार से पुकारा
जहाँ भी ग़मग़ीन मुझको पाया वहाँ बहा दी हँसी की धारा
अगर कभी आस दिल की टूटी लहर-लहर ने दिया सहारा
भरी है ममता से माँ की गोदी, नहीं है गंगा का यह किनारा

जो थपकियाँ मौज दे रही हैं तो लोरियाँ भी सुना रही हैं
आौर इस तरह से कि जैसे माँ अपने बालकों को सुला रही हैं

है रात बाक़ी हवा के झोंके अभी से कुछ गुनगुना रहे हैं
अगर कथा कह रहे हैं तुलसी, कबीर दोहे सुना रहे हैं
अमर हैं वह सन्त और साधु जो मरके भी याद आ रहे हैं
जो काशी नगरी से उठ चुके है वह मन की नगरी बसा रहे हैं

यह घाट तुलसी के नाम से है यहीं वह करते जाप देखो
जहाँ तुलसी, वहीं पे गंगा, पवित्रता का मिलाप देखो

है रात अब कूच करने वाली, सब अपने ख़ेमे बढ़ा रहै हैं
वह जिनके दम से थी जगमगाहट उन्हीं के दम टूटे जा रहे हैं
निशा की शोभा बढ़ाने वाले, सभाएँ अपनी बढ़ा रहे हैं
बहुत़से डूबे, बहुत-से टूटे, बचेै-खुचे झिलमिला रहे हैं

यह कौन पर्दे में छुपके तारों को मात पर मात दे रहा है
यह हिचकियाँ रात ले रही है कि साँस परभात ले रहा है

किये हैं यह दीप-दान किसने ठहर-ठहर कर मचल रहे हैं
हैं रोशनी के जिगर के टुकड़े हवा से तेवर बदल रहे हैं
नहीं-नहीं यह दीये नहीं हैं जो बहते पानी पे जल रहे हैं
गगन से तारे उतर-उतर कर लहर-लहर पर टहल रहे हैं

दीये की लौ सहमी जा रही है, हवा का झोंका लपक रहा है
हर एक दीये में है दिल किसी का ठहर-ठहर कर धड़क रहा हैं

मिला है गंगा का जल जो निर्मल उतरके ऊषा नहा रही है
हवा है या रागिनी है कोई टहलके बीना बजा रही है
अँधेरे करते हैं साफ़ रस्ता, सवारी सूरज की आ रही है
किरन-किरन अब कलश-कलश को सुनहरी माला पिन्हा रही है

हुई है कितनी हसीन घटना नज़र की दुनिया सँवर रही है
किरन चढ़ी थी जो बन के माला वह धूप बन कर उतर रही है

हर इक परायी नज़र से अपनी नज़र बचाकर गुज़र रही हैं
ये देवियाँ हैं मिरे नगर की जो सीढ़ियों से उतर रही हैं
घरों की परियाँ बदन समेटे उतर के अस्नान कर रही हैं
जो इनमें अस्नान कर चुकी है किनारे हट के सँवर रही हैं

है देखने वाले की नज़र पर, यहाँ की मस्ती यहाँ का यौवन
कि सृष्टि जैसी हो दृष्टि वैसी, ख़याल जैसा हो वैसा दर्शन

कहीं पे गुजरात की है परियाँ कहीं पे मड़वार की निशानी
वह सिन्ध का हुस्न-बेतक़ल्लुफ़ वह शोख़ पंजाब की जवानी
खुले हुए केश की लटों में महकते बंगाल की कहानी
यह घाट है सामने नज़र के कि देवाताओं की राजधानी

न जाने कितनों ने देश छोड़े हैं अपनी मुक्ति की जुस्तजू में
यहाँ पे आये हैं जान लेकर यहाँ पे मरने की आर्ज़ू में

यहाँ खड़ी हो के हर हमारत नसीब अपना जगा रही है
वह जिसकी हालत बिगड़ चुकी है वह अपनी बिगड़ी बना रही है
नये-नये घाट बन रहे हैं, नवीनता मुस्कुरा रही है
हर आर्ज़ू जैसे रक़्स में है निगाह मंगल मना रही है

यहाँ मुहब्बत की छाँह देखो, यहाँ मुहब्बत की धूप देखो
यहाँ का आनन्द लेने वालो, यहाँ का सम्पूर्ण रूप देखो

पहन के आबेरवाँ की साड़ी रवाँ है सीमाबवार गंगा
रवाँ हैं मौजें कि माँ के लिद की तरह से है बेक़रार गंगा
वो छूत हों या अछूत सबका उठाके चलती है भार गंगा
यहाँ नहीं ऊँच-नीच कोई, उतारे है सबको पार गंगा

’नजीर’ अन्तर नहीं किसी में सब अपनी माता के है दुलारे
यहाँ कोई अजनबी नहीं है न इस किनारे न उस किनारे

शब्दार्थ
<references/>