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बादर / पढ़ीस

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कस लील-गॅगन पट का सुंदर तना साम्याना;
सबिता बिहँसि रहे हयिं, चॉदी बरसि रही हयि।
घसियार घास छ्वालयिं, हरवाहु खेतु ग्वाड़यिं;
हरियर बिछु परे हयि हरियरी के बिछउना।
उत्तर दिसा ति बादर का एकु उठा फीहा,
दुइ-चारि अउर आए, दस-बीस अरे ह्वयिगे!
तनिकिहे देर पाछे परबत कि अस कँगूरा;
चारिउ अलँगति बढ़ि-बढ़ि अग्गास मा उरेहे।
पुरवाई के लहँका पर उमड़ि चले बादर
कस-अजभूत<ref>अद्भुत, आश्चर्यजनक</ref> लीला की बनती हयिं तसबोरयि।
कुछु छ्वाट-छ्वाट आये, ती बड़े-बड़े बनिगे;
तिन ते कटि छँटि उठिगा कस हॉथी का बच्चा!
हॅथवालु बइठ पीठी पर, बिगरि गवा मकुन<ref>छोटा, बौना, जिसके दाढ़ी मूँछ की रेख न हो</ref> ,
जब पूँछ सींग वाला, वुहु दानउ <ref>दानव</ref> अस दउरा!
कुछु बिना मूँड़वाले, कुछु सात मूँड़वाले;
कुछु के लम्बी टॉगयि, कुछु बड़ी बाँह वाले।
कुछु दउरि-दउरि आवयिं, कुछु बनि-बनि कयि बिगरयि,
कस - अजब - अजब ढँग के दरसायि रहे पुतरा।
अयिसी ते वयिसी तकु सब ल्वढ़कि-ल्वढ़कि लपिटे,
फिरि खमसि-खमसि खुब-खुब भुइँ लोटु बने बादर।
पानी के द्यउता के जुरि-जुरि आये जोधा,
ड्वालयि लागीं धरती-पिरथी खलभलि परि-गयि।
कस ढनन-ढनन ऊपर ते ग्वाला<ref>तोप के गोला</ref> अस छूटयि;
फिरि घनन-घनन बाजयिं अइरावत<ref>ऐतावत, देवराज इन्द्र की सवारी</ref> के घण्टा।
पहिले लपकयि कउँधा फिरि होति हयि ठहाका!
आपुस मा बदि-बदि कयि कसि छाँड़ि रहे बम्बइ<ref>अग्नेयास्त्र-बम</ref>।
झुँकि-झुँकि कयि उठि-उठि कयि, तनि-तनि क ताल ठ्वॉकयिं,
गिरि-गिरि कयि, परि-परि कयि, खालेति दाँउॅ ख्यालयि।
करियारी के जूरा का छोरि-छोरि उछरयि,
धुर ते घिरि-घिरि आवयि, सविता का मुँहँु झाँपयि;
का लील के पिछउरा पर अन्धकारू आढ़े!
झुँकि झमकि-झमकि उतरि रही अँध्यरिया की देवी?
की लील गगन पट पर भरि स्यमता कि कूँची,
हयि लिखि रहा मुसव्वरू<ref>चितेरा, फारसी का मूल शब्द मुसव्विर</ref> कजरी-वन के भीतर;
दस-पाँच सउ पुछाँड़ी अउ अनगिनित मुरयिला,
नाचति हयिं बॉबिन पर साँपन ते मुँहँु जोरे ?
का लील समुन्दुरू मा बूड़ा बढ़ि-बढ़ि आवयि ?
उबरायि रहा जलहलु लहरी लयि-लयि ल्वहँकयि<ref>हिलोर लेना</ref> ?
उतरायि बड़े फीहा, लड़ि-लड़ि गड़-गड़ गड़कयिं,
का बइठ जहाजन पर डाकू तोबइ छॉड़यि ?
उजले -उजले बगुलन की पॉती उड़ती हयिं,
सीधी, तिरछी, उलटी, टेढ़ी-मेढ़ी बनि कयि;
का स्याम समुन्दुरू की छाती पर बहती हयिं-
पतरी-पतरी सुंदर, यी दूधे की धारयि?
परबत की चोंटी के काँधे ऊपर ल्वाटयिं,
मुहुँ चूमि-चूमि क्वहिरा के मोती भरि भाजयि।
खढ्ढन ते उठि आवयिं, घूमयि गल्ली कूँचा
घर भीतर तक घुसि-घुसि लरिकल का मुँहुँ चाटयिं।
गढ़ियायि गवा बादरू, तब परि गयीं बयारी,
सब उमसनि पर व्याकुल भे, लागि रामु बरसयि।
वह पुन्नि की उज्यरिया अब लीलि लिहिस वहिका?
उयि करम के बिछउन पर चूनि रहे प्रानी!
यह गति -विधि का रोंकिसि, सब घर-भीतर घुसि गे।

पहिले आई झींसी, फिर फॉफा, तब बूँदी-
बूँदन-बूँदन बढ़ि-बढ़ि कस बरसि रहा पानी!
गायी <ref>दूध देने वाले पशु-गायें</ref> डूँड़ी<ref>बिना पूँछ की</ref> ड्यबरिउ<ref>अपंग, कमजोर</ref> चरतीं उयि भूड़न पर,
घन, घने देखि घर का जिउ छाँड़ि-छाँड़ि भाजीं।
डिंडियायि लाग लीचर<ref>पशु का तुरन्त पैदा हुआ बहुत छोटा बच्चा</ref> डींकयि लागीं पँड़िया,
पुड़क्यायि कयि पँड़यलवा सब हारू छाड़ि भाजे।
पूँछयि उठायि भागीं बम्बायि का कलोरि<ref>बिना बियायी गायें</ref> ,
बछिया बछरा कानन पर बूँदन का र्वॉकयिं।
कस अरर-अरर पानी की म्वटरी<ref>गठरी</ref> कटती हयिं!
छपरन के माथे की मॅगरी<ref>कच्ची दीवाल पर छायी गयी छपरिया</ref> उड़ि-उड़ि आवयिं!
बॅगलन<ref>ग्रामीण आवास छप्पर</ref> के भीतर ते सब करयिं बॉध पक्के,
खुब बहि रहे पनारा, खुब चुइ रहीं ब्वरउनी<ref>छप्पर की कोर, किनारी</ref> ।
तनि किहे देर पहिले उयि, धूरि-धुरंगे सब,
गलियारन मॉ पानी की धारा बहती हयिं।
बूड़यि लागीं म्याड़यि,<ref>खेतों की सीमा निर्धारण करने वाली रेखा-मेंड</ref>़ उबरायि चलीं गड़ही
पानी के कस तरे तालु खेतु एकु ह्वयिगा!
पुरवाई क झ्वॉका जब छिप्पा भरि लावयि,
मुंहॅु चूमि जायि लरिका पुरिखा सबका हॅसि-हॅसि।
बउछारन की काने मा बाजि जायि बंसी।
‘‘द्याखउ मोती बरसयि द्वासर चरन चिरय्या!
पानी के बुज्जा सब कस उठयि बहयिं फूटयिं।
का जिन्दगी का नकसा<ref>नक्शा</ref> अयिसयि बनि-बनि बिगरयि?
का, हम हूँ कबहूँ मिलिकयि माटी मा उठबयि!
बनि जाब यिहे बादर मॉ अमिरित की बूँदयि?
फिरि आयि-आयि धरती पर झमकि-झमकि वरसब
हॅसि चूमि-चूमि ग्वाड़न का जड़ अउ चेतन के!
कस बनि-बनि कयि बिगरब! कस बिगरि-बिगरि बनबइ
कस रोयि-रोयि हँसबयि! कस हँसि-हँसि कयि रोइब!
कयि चारि घरी किरला, अघवायि<ref>तृप्त करना</ref> क पिरथी का
जब इन्द्र अखाड़ा मा सब जायि घुसे बादर,
तब भा अगासु निरमल द्यउता फिरि ते चमके।
चिरई-जुनगुन, किरवा तकु उदरि लागि धंधा।
अँगड़ायि उठे बुढ़वा, जमुहायि क जुआनन
अपने करम की लाठी, फिरि कसि-कसि कयि पकरिनि।
फरूहा, कुदारि, गँड़ासा, फिरि चलयि लागि खुरपा,
फिरि झुँकयि लागि जोधा बलिदान की बेदी पर!
फिरि बाँधि-बाँधि मूड़े पर धरि-धरि कयि ट्वकनी<ref>डलिया, टोकरी</ref> ,
दुरगा, चण्डी, निकसीं लयि चारवन क चारा।
सावित्रि अउ सीता की साखि धरे माथे
सब निािसे गयीं ख्यातन का मनइन की छाहीं।
कंगला कुमार निकरे फिरि डारि-डारि झोरी,
दाना बटोरि लावयिं तिहि ते भरिहयिं क्वाठा।
जिन ते जीहयिं मनई तब तउ बरम्हा बाबा!
यहु भॉयिं भॉयिं धरिहयिं संसार का तमासा!

शब्दार्थ
<references/>