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अमर / पढ़ीस

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अ-संयोग सुरा का प्याला पी-
कर छक छलका फिर झूम-झूम,
दर्पण देखा क्या मर-मिट कर,
मैं लुटा हुआ बस छला हुआ!
बेहोश हुआ।
तन्द्रा<ref>नींद, ध्यान, ऊँघ</ref> वह भंग हुयी तो, था
जीवन - प्रभात का अरूणोदय;
तुम किरणों-छवि भर लाये
शिशु के शुचिं<ref>पवित्र</ref> अधर मधुर बनकर
आँखें खोलीं।
चंचल लख कर माँ के अंचल-
में सरक-सिमट कर तुम आये;
फिर ठुनक-ठुनक उस बाल-सखा
से चकई भँवरा पर नाचे,
मैं अँगड़ाया।
गोचारण गोपाल रहे,
पनिहारिन में ब्रजबाल बने,
लिपि के अक्षर-अक्षर विद्या-
र्जन वेद शिष्य गुरूदेव हुये,
कुछ होश हुआ।
यौवन - मद का आसव - प्याला
बन तुम छाये मध्याह्न-किरण;
तुम थे यौवन यौवन तुम था,
तुम थे खिंचाव, खिंचते तुम थे,
मैं सिहर उठा।
युवती के लोल कपोल गोल,
वे मदिर नयन बाँकी चितवन,
तुम प्रिया-प्रणय पर मधुर मिलन
कोमल कर-कम्पित हृदय-हार
होकर आये।
तुम नवल वधू की लाज मढ़े
मुग्धा मन के उद्गार बहे;
वह रूप-गर्व, वह चपल व्यंग्य,
उस थिरकन में उस हिरन में-
तुम जड़े खड़े।
जीवन की महदाकांक्षाओं में
सफल, हुये असफल भी तो।
तुम हानि-लाभ, उत्थान-पतन,
छल-बल तुम थे, निश्छल तुम हो,
अब क्या देखा-
र-रवि के ढलाव में तुम झलके,
जीवन-दिन के तीसरेपहर,
बूढ़े की चितवन चल छलके
बूढ़ी की आँखों से बरसे,
अनुराग-भरे।
गृह जंजालों के जटिल जाल
उलझन से आये सुलझ सुलझ,
कुनबे की ममता थे तुम ही,
देखा भंगुर क्षण में भी तुम
थे मनमोहन।
इन्द्रियाँ शिथिल जर्जर, शरीर-
कम्पन में छाप तुम्हारी थी।
इस टूटू - फूटे मन्दिर में,
भी जगमग जलती ज्योति अमिट,
बस, अचल अटल।
भौतिक शरीर की सन्ध्या में
उस नभलाली से तुम झाँके।
जीवन - अस्तांचल से उतरे
जीव को जगाने बन बाँके।
बलिहार हुआ।
अन्तिम साँसों की लड़ियों में,
पिंजर - शरीर पंखड़ियों में,
तुम प्राण-पखेरू की आभा-
चिन्तामणि से पावन प्रियतम,
नटवन सुन्दर!
उफ़ अन्धकार ! उफ़ अन्धकार !
क्या प्रकाश देखा प्रकाशमय !
जीवन का अन्त अनन्त हुआ,
जिसमें अनन्त से अन्त बहा।
यह पटाक्षेप !

वह शान्त महासागर था निर-
मल निर्निर्मेष<ref>अपलक, एकटक</ref> ताकता जिसको,
पर मैं न रहा, फिर तुम न रहे
जब कुछ न रहा, तब शून्य सुघर
क्या ? मूक-मूक !

शब्दार्थ
<references/>