अकेले के पल- 3 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
मित्र !
‘अमृता 1’ कहती हैं
‘‘छाती में जलती आग की
परछाईं नहीं होती.’’
संभव है यह सच हो
मैं ही भ्रम में होऊँ
पर मेरे तईं
यह अजूबा ही घट रहा है
कि अपनी छाती में
बलती अग्नि-ज्वाला की
परछाईं के पकड़ने के प्रयास में ही
तुम्हारे सिंहद्वार तक
मेरा आना हुआ है.
पूरी यात्रा में
इस आग की लपलपाती लौ
कभी दिखती
तो कभी लुप्त होती रही है.
दिखती ज्वाल-शिखा के
छितराए प्रकाश में
मैं अपने को पंक्ति दे रहा हूँ
लोप होने पर भी मैंने
किसी पंक्ति की माँग नहीं की है
तुम्हारे सिंहद्वार पर भी
द्वार खुले हैं
पर जलते बुझते प्रकाश में
तख्तियों के उभरते मिटते अंकन
मुझे ठिठकाए हैं यहाँ
और अंतराग्नि द्वारा रचे द्वंद्व
मेरे अंतर्द्वंद्व से एकाकार हो
मुझे अंचंभे में डाल रखे हैं
सौदामिनी के प्रकाश में
दस्तक देना भूल गया हूँ
तुम्हें मेरी आहट तो मिल ही गई होगी
मैं इन तख्तांकनों में
तुम्हारी आहट ढूँढ़ रहा हूँ.
इस क्षण
मेरी छाती में जलती आग
मुझे ऑच दे रही है
मन के आंगन में उठते धुंध
इस आँच की गरमी से
विरल अवश्य हो रहे हैं
पर तुम्हारी आहट पाने का एकांत
नहीं रच पा रहे हैं
किंतु मैं भी खूब हूँ
तुम्हारी आहट पा लेने को
यहीं जमा पड़ा हूँ.
1.प्रसिद्ध कवियित्री अमृता प्रीतम