अकेले के पल- 4 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
सुना है मैंने मित्र !
तुम एक अग्नि-कवि हो
तुम्हारे पास एक आग है
जिसे कविताओं के गद्य में समो कर
हवा में उछालते हो
जो फूलों की खिलावट को
तरल क्रांति का प्रकंप तो देती ही है
पत्थर-सी जड़ता को भी
एक झटका दे जाती है
इन झटकों का ताँता
उनकी बौखलाहट को
घना करता जाता है.
यह भी सुना है कि
ऐसी ही एक अग्नि-संवेदित कविता
तुम मेरे लिए भी लाए हो
तुम्हारे सिंहद्वार पर
मैं प्रतीक्षालीन हूँ
अपेक्षित सन्नाटा भी बुन रहा हूँ
और बड़ा गजब है
मुझे एक आहट भी सुनाई देने लगी है
जो निरंतर घनी होती जा रही है.
इस क्षण मेरे अंतर में भी
एक ध्वनि उठने लगी है
जिसकी आहट के प्रति
मेरा अवधान संवेदित है
इन आहटों की प्रतिसंवेदनों से
अभिभूत हूँ मैं
इनके उत्स में उतरने को अनुप्रेरित
तुम्हारे द्वार पर दस्तक देना भूल गया हूँ
क्या मालूम दस्तक देने की भी
कोई सार्थकता है या नहीं.