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अकेले की ओर- 1 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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 मित्र !
     अंतरिक्ष की समाई हो
     या परमाणु की कोख
     इनमें मनुष्य का प्रवेश
     बड़ी तीव्रता से हो रहा है
     लेकिन यह संसार
     उसकी मुट्ठियों में नहीं आ रहा
     यह प्रतिदिन, प्रतिपल
      उसकी उँगलियों के पोरों से
     फिसलता जा रहा है
     जीवन की धारा
     उसकी पकड़ में नहीं आ रही
     उसकी आँखों के सामने
     उसकी चेतना के साक्षीत्व में
     उसके अपने ही आवेग
     उसके वश में नहीं.

     वह आज का प्रत्येक क्षण
     जी लेना चाहता है
     पर क्षण का पूरापन
     जिसमें आगत अनागत क्षणों का
     नैरंतर्य भी गॅुथा है
     वह अपनी दृष्टि की समाई में
     समो नहीं पाता.

     वह प्रत्येक क्षण रचनाशील है
     और अपने सृजन को
     आंदोलन का प्रकंपन देकर
     लोगों के रोंगटे
     सायास खड़ा करता है
     और आत्मविमुग्ध
     उद्वसित होता रहता है.

     आश्चर्य
     वह चिड़ियों से बात करता है
     वनपाखी
     उसके चित्त के संकलन में हैं
     फिर भी वह प्रकृति से
     उतनी ही दूर है
     जितना स्वयं अपने आप से.

     अपनी रचना में
     वह बहुत कुछ रच लेता है
     जिसमें उसका बुद्धि-प्रसार
     और बहुपठित होने की झलक
     टिमटिमाती है
     फिर भी उसकी पूरी रचना
     उसकी स्नायुओं में फिरते
     तरंगाघातों के मेल में
     नहीं होती
     वह रचता तो है विद्रोह
     पर रहता है
     सुविधा की लय में लवलीन.

               
     बाहर के आकाश में
     उसकी उॅगलियॉ
     पूजा की मूरतें उकेर लेती हैं
     पर उसका अपना ही आकाश
     सूना रह जाता है
     वह अपने रीतेपन को
     भर नहीं पाता
     पर रचनाकार बनने के व्यामोह में
     पंक्ति बनाते बनाते
     स्वयं पंक्ति बन जाता है.

     पंक्ति से हटकर चलना
     उसकी अवधारणा में नहीं अॅटता
     वह सोचता है-
     ‘‘चला होगा कोई पंक्ति से हटकर
     कम रही होंगी उसकी चुनौतियाँ’’
     पर मैं सोचता हूँ
     धर दूँ निस्संकोच अपने आप को
     आज की चुनौतियों की धार पर
     और चल पड़ूँ अक्खड़ता से
     पंक्ति से हटकर, कदम दो कदम
     अकेले की नाव लिए
     अकेले के पलों के साथ
     अकेले की ओर.