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बीज-संवेदन- 2 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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नदी के पुलिन पर पड़ा मैं
     एक दिन
     उसकी तली में वंकिम लेटे
     शांत स्निग्ध जल से खेलती
     सांध्य किरणों को देख रहा था
     दिन की ढलान सुहानी थी
     पलकें कुछ खुली कुछ बंद थीं
     तन की शिराओं में
     रक्त का प्रवाह
     सहज सरल और आकंठ था
     सामने
     जल के अंतस्तल में
     नभ की परतें
     एक एक कर बीत रही थीं
     इतने में
     बादल का एक सफेद टुकड़ा
     जो अब पीताभ होने लगा था
     एक पत्र की तरह
     मेरी आँखों में खुला
     मैंने देखा
     उसके एक कोने में
     केसर रंग का एक पंछी
     एक श्वेत पंछी के पंखों से
     आशीर्ष आवरित
     दिगंत की दिशाओं की टोह में
     उड़ान भर रहा था.
                      
     मैं नहीं जानता
     वह सफेद पंछी
     जो एक सहयात्री-सा लहग रहा था
     उस केसर पंछी की रक्षा में
     कहीं साथ हो लिया होगा
     अथवा प्रारंभ से ही उसके साथ था
     पर यहॉ जो दीख रहा था
     उसे देखकर मैं अचंभित था
     बात ही अचंभा की थी
     वह पंछी यद्यपि आवरित था
     पर उसकी गतिविधि बता रही थी
     वह दिगंत की उड़ान में
     श्वेत पंछी के आवरण से अनजान
     अकेला उड़ रहा था
     दिशाऍ उसे लुभा रहीं थीं
     इस लुभावन में
     खुलती झिंपती दृष्टि लिए
     वह आकाश में डोल रहा था
     वह आवरण की उपस्थिति से अनभिज्ञ था
     पर संकल्प का वेग उसमें पूरा था
     उसके मुख पर
     थकान के चिह्न नहीं थे
     वह खोजी चित्त का
     अथक प्रयासी लगता था.

     उसकी अस्खलित उड़ान पर
     मेरा मन
     इतना रीझ गया कि
                          
     उसकी उड़ान में साथ हो लेने की
     मुझमें भी साध जग उठी
     मेरा मन केसरिया नहीं था
     पर मेरी साध ने
     मुझे भी उस उड़ान से जोड़ दिया
     उस पंछी के साथ उड़ान भरने में
     मुझे बहुत अतिरिक्त महसूस नहीं होता.