अनुस्मरण / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
शताब्दी के पूर्वार्द्ध के
अंतिम दशक के प्रारंभ से
शताब्दी के
इस अंतिम दशक के
अंतिम वासर तक के
काल-प्रसार में
जितना मैं स्मरण कर पाता हूँ
मैं अनुभव करता हूँ
मेरी अब तक की यात्रा
निपट मेरे अकेले की रही है.
पहले मुझे इसका भान नहीं था
मित्र! तुम्हारे चिदसंपर्क में आकर
कुछ समझ आने लगा
और तब मेरे पूर्वानुभूत
मेरे बोध में उतरते गए.
आज मैं स्पष्ट देख रहा हूँ
कई उतार चढ़ावों से गुजरता
कभी समय के साथ
कभी समय की धारा से हटकर
मेरा सोचना समझना भी
कुछ इसी तरह का रहा है
मेरे सोच के कई स्तर
अचंभे की हद तक
तुम्हारे सिखावनों से
मिलते जुलते रहे हैं.
पर मेरे लिए वे
गुत्थी-सी पैदा करते रहे हैं
ओर छोर विहीन
कल्पना में औंधे लटकते-से
एकदम न्यारे
परंपरा को चुनौती देते-से ये सोच
कंठ तक आकर भी अमुखर
मेरे अकेले के ही प्रस्फुटन रहे हैं
ये निःसृत होकर भी
युग को चुनौती न देकर
मात्र कल्पना का आवेग बनकर
रह जाते रहें हैं.
पहले पहल
बॉसों से झाँकता सूरज
जब मेरे बोध में उगा था
अपने परिवेश से असंपृक्त
मैं अकेला ही था
अक्षरों के परिचय से लेकर
वाक्यों के सरल तरल अर्थों में
मेरा हृद्-मन जब उलझने लगा
तो पोरों में खिलती अनुभूति
मेरे अकेले की ही थी
मेरे उर मन पर इनके अंकन
फ्लापी की तरह
आज भी संवेदनशील है.
आज मेरा मन
आकुंचन प्रकुंचन के केंचुल छोड़ता
अथ से आज तक के
भावों के उन्मेष को
मुखर वाणी देने लगा है
लोक में संसरित मेरी वाणी
लोक प्रवाह से टकराती
अनमेल और अकेले की है.
तब से अब तक में
फर्क केवल इतना ही पड़ा है
कि तब मेरे प्रयाण की दिशा
अनिर्दिष्ट थी
लोक की उलझनें
मेरी बुद्धि में
राहें खोज लेती थीं
किंतु आज मेरी यात्रा
अकेले की तो है ही
अकेले के पलों के साथ
अकेले के ओर की है.
कल यह संवेदना
मेरी बुद्धि के तल पर थी
आज मैं इसके बोध से
भींग रहा हूँ
आज मेरी अनुभूति साक्षी है
कि प्रकृति का अवयव अकेला है
पर उसकी गति ताल और लय
एक व्यापक छंद में बँधा है
यह अकेले की ओर का चलना
वस्तुतः उस व्यापक छंद को
अपने बोध में लेना है
वल्कि ठीक ठीक कहें तो
प्रकृति का छंद ही बन जाना है.