भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काम तरक़ीब से निकाल अपना / रविकांत अनमोल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:52, 10 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रविकांत अनमोल |संग्रह=टहलते-टहलत...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये ज़माना है कारसाज़ों का
काम तरकीब से निकाल अपना

काश उनका जवाब आ जाए
राह तकता है इक सवाल अपना

पैरहन हो गया है ख़ाबों का
दे गये थे जो तुम ख़्याल अपना

कितनी लंबी थीं हिज्र की रातें
कितना था मुख़्तसर विसाल अपना

यूँ न ख़ुद ही से बात हम करते
कोई होता जो हमख़्याल अपना

हमने हर दर की ठोकरें खाईं
हल नहीं हो सका सवाल अपना

बेख़ुदी ही सही मगर फिर भी
कुछ तो 'अनमोल' कर ख़्याल अपना