Last modified on 11 नवम्बर 2014, at 12:16

नालय बडशाह / अब्दुल अहद ‘आजाद’

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:16, 11 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अब्दुल अहद ‘आजाद’ |अनुवादक=रतन ला...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दिल में हूक जो उठती है
मन से संगीत फूटता जो

कभी छिपाए नहीं छिप सके

ऐसा है यह धन
इसका उपयोग नहीं करता जो

इसे गँवा देता है

नहीं रहा क्या ऐसा कोई ीमत, हितैषी
जिसकी रगरग में दौड़ रहा हो वही ख़ून
हाय प्यार के वे ‘कुमरी’ पंछी
किस की ओट लिए
कहाँ छिपे बैठे हैं ?

वही हवा है
ज़मीन वही
सोते वही आज भी पहले जैसे उफन रहे
नदियाँ वही
बह रहा पानी इनमें वही

देख रहा हूँ वे ही सीने
ठंडे हुए बर्फ़ से ज्यादा
जो अपने भीतर की लय में <ref>गरजा करते</ref>
उबला करते ज्यों कड़ाह

ऐ मेरे हमवतन,
नहीं क्या जाग जाओगे जब भी
गंभीर नींद से

सर्वस्व तेरा तो गया
जान भी अब क्या व्यर्थ गँवा दोगे ?

यह कोन प्यार की क्यारी है
जिनमें ख़ामोश रमे बैठे
ओ पंछी बोलो तो
क्या गम है तुझको भीतर-ही भीतर खाए
हो दुख से बेखबर पड़े,
हो अचेत पीड़ा से भी
काश होश में आए तू
अपनी पीड़ा का खुद कोई उपचार करे
मैंने देखे हैं
अँधियारे के हिमकण, ज्योतिर्मान मशालों से
शीशमहल के दर्पण, ‘त्राहि त्राहि’ में फूटे

अत्याचारी !
कैसी आग लगाई तुमने
कबूतरों के पंख जला कर राख किए
<ref>फिर भी देखो</ref>
देख रहा हूँ, अब भी

इनसे तो हैं बाज़ भी डरे
जगह जगह

बड़ा लाड़ला लल्लू है जो बंदा
नहीं समझ सकता वह गति,
‘आज़ाद’ की

वहीं अंग हमारा केवल
जलन आग की समझे
जो गिरता है आग के अंदर।