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नाबद त् ट्यठव्यन् / दीनानाथ ‘नादिम’

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बिजली की बत्ती के गिर्द मच्छर दो
खड़े रंगोली के ऊपर हैं दुल्हा-दुल्हन

उस पेड़ की छाँव में वह उग आई लाजवंती ‘टेक् बटन्य’
चौका लीप पोत कर उझकने लगी अभी-अभी रोशनदान से
कोई कमसिन ओढ़नी में
पसीना-पसीना हो गई।

‘सबुल’ की सुगंध ने
धक्के से कली के दरीचे खोल दिए

‘मंज़गाम’ <ref>मंज़गाम’ <ref>कश्मीर</ref> मंे अकेला <ref>और विस्मयकारी</ref> चंदन का पेड़ खड़ा है</ref> में चंदन के वृक्ष पर फूल लगे हैं
नीले पर्दे में हुआ कंपन
कहीं क्लियोपत्रा नहाने तो नहीं निकली ?
गुलदान में दो कलियों पर
दो सर्पो का उभरा आकार

शेषनाग के चारों और फैला सागर

कमल फूल में से उत्पन्न हुए ब्रह्मा

आईने के भीतर चूड़ियाँ खनकीं
मुझे लगता है रात के बारह बजे होंगे

उस पर्दे के पीछे हो रही है फुसफुसाहट कुछ
खिड़कियों से झाँक रहीं दो-दो आँखें
कितनी बड़ी कितना प्रेम छलकातीं
प्रियदर्शन, एक स्न्ग्धि मुस्कान
और एक झटकन मटकन

रेशम-रेशम नरमी-नरमी
फिसल आई है हिमानी ढ़लान से

खड़ा है-चिनार-भव्य और शीतल
सरू-सरल और उन्मत्त
‘स्वन चिचुर’ ने आकाश की ओर उड़ान भरी
या कोई हिरणी अग्नि में अचानक कूदी तो नहीं ?
कहीं कुंती ने कर्ण को तो नहीं बुलाया ?

नांद में संभवतः बच्चे का जन्म हुआ
दीवार पर लगे चित्र ने आँखें तरेर तो नहीं ली

मजूरन दस दिन बाद अपने पति से बतिया पाई है
चाँद डूबने के बाद रात के अँधेरे में

श्वेत वस्त्र पहने मरियम
धीरे-धीरे उस पर्वत के दामन में चलते कहाँ छुप गई ?

प्रभात के मुख पर ढेर सारी लालिमा
कनपट्टियाँ लाल हो गई हैं
बाग़ की सारी घास पसीने में भीग गई
‘हिय’ की देह लता ऊपर से नीचे तक छरहरी है, नाज़ुक है
बीच में सिर्फ़ दो उभार हैं
<ref>यों ही जीवन में</ref> जो कड़वा है वह मीठा है, जो मीठा है वह कड़वा
लो शकुंतला फिर मायके चल पड़ी।

शब्दार्थ
<references/>