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वरदान नहीं माँगूँगा! / राधेश्याम ‘प्रवासी’
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तुम एक बार बस आ जाओ जीवन में,
सच कहता हूँ वरदान नहीं माँगँूगा!
यह अर्चन का फिर बुझा दीप जल जायेगा,
मेरा मुझ को खोया अतीत मिल जायेगा,
दे दूँगा प्राणों की सौगात तुम्हें मैं
पर बदले में प्रतिदान नहीं माँगूँगा!
चिर परिचित पगध्वनि जो सूने में आती है,
उर-कंपन को संगीत बनाती जाती है,
प्रतिबिम्ब दिखादो वह जग के दर्पन में
अज्ञात सखे पहिचान नहीं मांगूँगा!
आहों में छिपने वाले हर आह बुलाती है,
जीवन की सूनी-सूनी हर राह बुलाती है,
यदि क्रन्दन ही बन कर तुम मेरे उर में
बस जाओ तो मुस्कान नहीं माँगूँगा!
जागृति में हो साकार या कि सपनों में,
उर-भावों की यमुना कल्पना बनों में,
टूटी वीणा के तार एक क्षण भर को
जुड़ जाओ मैं मधु गान नहीं माँगूँगा!