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युगान्तर्द्रष्टा कवि / राधेश्याम ‘प्रवासी’

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वह जन-जीवन द्रष्टा-श्रष्टा,
युग का निर्माता जन कवि है!

जो महाप्रलय की छाती पर, निर्माण गीत को गाता है,
जो सर्वनाश की झंझा में, पथ का दर्शक बन जाता है,
हिन्द महासागर का बाडव जिसके उर में खौल रहा है,
बर्बरता, आसुरीशक्ति को इंगित पर जो तौल रहा है,
स्वर्ण-शृंखला बाँध न पायी जिसकी तूली को बन्धन में,
क्रूर नियति भी रोक न पायी जिसका अपने अवगुम्फन,
द्वापर, त्रेता, सतयुग को सतयुग, त्रेता, द्वापर कर डाला,
वर्तमान की पृष्टभूमि पर, भविष्य को पहले रच डाला!
बाल्मीकि, द्वैपायन, तुलसी,
कालिदास, केशव, भारवि है!

शिवराज भवानी को जिससे प्रेरणा मिली, दृढ़-शक्ति मिली,
हिल उठा शाह का सिंहासन वह निश्चय की दृढ़ उक्ति मिली,
गजनी को गोर किला कहता जब चन्द्र भाव अभिव्यक्ति मिली,
उस नेत्रहीन राजा को भी अरि वध करने की शक्ति मिली,
मेरी मृदंग भैरव स्वर में जिसने कितने रण गीत लिखे,
तलवारों की झंकारो में जिसने कितने संगीत लिखे,
कायरता की कल्मषता की तब जली कालिमा मय होली,
रक्तिम रोली दे निकल पड़ी तब दीवानों की थी टोली!
जो स्वतन्त्रता का अनुगामी,
परवशता के ऊपर पवि है!

जिसने तिल-तिल कर रक्त दान, है संस्कृति का निर्माण किया,
अंगार भरे कंटक पथ पर, हँस करके महाप्रयाण किया,
कुछ जगती का सन्मान शेष सूनापन ही तो मिल पाया,
उन्मादी जीवन में फिर भी उन्माद न अपना खो पाया,
चित्रित होकर के चिर विराट, यह दिग-दिगन्त, भूधर, अम्बर,
हो परब्रह्म साकार उठा जिसके छन्दों मंे परमेश्वर,
जीवन का सच्चा सेनानी मानवता का अभिनेता है,
वह कविर्मनीषी स्वायंम्भुव जगाती का नाट्य प्रणेता है,
जिसके भावों को चुरा प्रकृति,
रचती धरती की मृदु छवि है!

जिसकी स्मृति ने सदियों का इतिहास सँजोकर रक्खा है,
जीवन के पतझर में साहस मधुमास छिपाकर रक्खा है,
बन जननायक निर्माण क्रान्ति का मानव को वरदान रहा,
दानवता के धेरे में भी दुख सह कर जो इन्सान रहा,
सर्वस्व लुटा करके अपना श्रद्वेय रहा, धनवान रहा,
ठुकरा करके प्रासादों को जो दीनों का मेहमान रहा,
उर सरसिज सा कोमल, कठोर वज्रवत रहा, पाषाण रहा,
था शीतल शीत सदृश फिर भी ज्वाला सा दहता प्राण रहा,
जग की इस तम मय रजनी में,
वह स्वर्ण - रश्मि ज्योतित रवि है!