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खोल दो, खोल दो द्वार / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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खोल दो, खोल दो द्वार;
कर दो अवारित नीलाकाश को
कौतूहली पुष्प गन्ध को करने दो प्रवेश मेर कक्ष में;
प्रथम आलोक सूर्य किरण का
होने दो संचार नस नस में;
‘मैं जीवित हूं’ - यह वाणी अभिनन्दन की
मर्मरित हो रही पल्लव पल्लव में-
मुझे सुनने दो;
यह प्रभात
ढक देने दो इसे अपने उत्तरीय से मेरे मन को
जैसे वह ढक देता है नव शस्य श्यामल प्रान्तर को।
प्रेम जितना भी पाया है अपने इस जीवन में,
उसकी निःशब्द भाषा
सुन रहा आकाश और वातास में;
उसके पुण्य अभिषेक में करूंगा स्नान मैं।
समस्त जन्म के सत्य को एक रत्नाहार रूप में
शोभित मैं देख रहा उस नीलिमा के कण्ठ में।
‘उदयन’
प्रभात: 28 नवम्बर