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चैतन्य ज्योति जो / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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चैतन्य ज्योति जो
प्रदीप्त है मेरे अन्तर गगन में
नहीं वह ‘आकस्मिक बन्दिनी’ प्राणों की संकीर्ण सीमा में,
आदि जिसका शून्यमय, अन्त में जिसकी मृत्यु है निरर्थक,
मध्य में कुछ क्षण
‘जो कुछ है’ उसी का अर्थ वह करती उद्भासित है।
‘यह चैतन्य विराजित है अनन्त आकाश में
आनन्द अमृत रूप में’-
प्रभात के जागरण में
ध्वनित हो उठी आज यही एक वाणी मेरे मर्म में,
यह वाणी गथतीचलती है ग्राह-तारा
अस्खलित छन्द सूत्र में अनिःशेष सृष्टि के उत्सव में।