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दुःखद दुःख के घेरे में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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दुःखद दुःख के घेरे में
मानव को देख रहा निरुपाय असहाय,
समझ मंे न आता कुछ
कहाँ उसकी सान्त्वना है ?
अपनी ही मूढ़ता में, अपने ही रिपुओ के प्रश्रय में
इस दुःख का मूल है जानता हूं;
किन्तु उस जानने में आश्वास नहीं पाता हूं।
जान ली यह बात जब -
मानव चित्त की साधना में
गूढ़ है रूप जो सत्य का
वह सत्य सुख दुःख सबके अतीत है,
तब समझ जाता हूं,
अपनी आत्मा में जो हैं
फलवान करते उसे
वे ही चरम लक्ष्य हैं मानव की सृष्टि के;
एकमात्र वे ही हैं, और कोई नहीं।
और जो हैं सब
माया के प्रवाह में छाया समान है।
दुःख उनका सत्य नहीं,
सुख है विड़म्बना,
उनकी क्षत-पीड़ा धारण कर भीषण आकृति
प्रति क्षण लुप्त होती रहती है।
रखती नहीं कोई भी चिह्न इतिहास में।

‘उदयन’
प्रभात: 29 नवम्बर