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सृष्टि का चल रहा खेल है / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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सृष्टि का चल रहा खेल है
चारों ओर शत सहस्र धारा में
काल का असीम शून्य पूर्ण करने को।
सामने जो भी कुछ ढालता है,
पीछे बार बार अतल तल में जा विलीन हो जाता वह,
निरन्तर लाभ और क्षति,
इन्हीं से मिलती है उसे गति।
कवि का खेल है छन्द् का, वह भी तो रह रहकर
निश्चिह्न काल की देह पर अंकन है चित्रों का।
काल चला जाता है, पड़ा रह जाता शून्य।
यह ‘लिखना मिटाना’ ही है काव्य की सचल मरीचिका
यह भी छोड़ देती स्थान,
परिवर्तमान जीवन यात्रा की करती है चलमान टीका।
मनुष्य निज अंकित काल की सीमा में
रचता है सान्त्वना असीम की झूठी महिमा से,
भूल जाता यह, न जाने कितने युगों का वाणी रूप
निःशब्द का निष्ठुर कठोर व्यंग
ढोता ही चला आता है भूमि के गर्भ में।