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कड़ी धूप की लपटें हैं / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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कड़ी धूप की लपटें हैं
जनहीन दोपहरी में।
सूनी चौकी की ओर देखा मैंने,
वहाँ भी तो सान्त्वना का लेश नहीं।
छाती भरी हताशा की भाषा
मानो करती हाहाकार हैं।
शून्यता की वाणी उठती करूणा भरी,
मर्म उसका पकड़ाई देता नहीं।
मृत मालिक का कुत्ता जैसे
करुण दृष्टि से देखता है,
नासमझ मन की व्यथा वैसे ही करती है हाय-हाय,
क्या हुआ, क्यों हुआ, कुछ भी न समझता है -
दिन-रात व्यर्थ दृष्टि से चारों ओर
केवल बस ढूढ़ता ही फिरता है।
चौकी की भाषा मानो और भी है करुण कातर,
शून्यता मूक व्यथा हो रही व्याप्त प्रियजन विहीन घर में।
‘उदयन’
संध्या: 26 मार्च, 1941