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खुला था मन का द्वार / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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खुला था मन का द्वार, असतर्कता में अकस्मात्
लगा था न जाने क्यों कहीं से दुख का आघात वहाँ;
उस लज्जा से खुल गया मर्म तले प्रच्छन्न बल
था जो जीवन का निहित सम्बल।
ऊर्ध्व से आई जय ध्वनि
दिगन्त पथ से मन में आ उतरी वह सुलक्षणी,
आनन्द का विच्छुरित प्रकाश
उसी क्षण मेघ का अँधेरा फाड़ फैल गया हृदय में।
क्षुद्र कोटर का असम्मान दूर हुआ,
निखिल के आसन पर दीख पड़ा अपना स्थान,
आनन्द ने आनन्दमय चित्त मेरा जीत लिया,
उत्सव का पथ
पहचान गया मुक्ति-क्षेत्र में सगौरव अपना स्थान।
दुःख ताड़ित ग्लानि थी जितनी भी
छाया थी, विलीन हुई अकस्मात्।

‘उदयन’
मध्याह्न: 14 फरवरी, 1941