भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काल के प्रबल आवर्त से प्रतिहत / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:21, 19 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर |अनुवादक=धन्य...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काल के प्रबल आवर्त से प्रतिहत
फेन पुंज के समान,
प्रकाश अन्धकार से रंचित यह माया है,
अशरीरी ने धारण की काया है।
सत्ता मेरी, ज्ञात नहीं, कहाँ से यह
उत्थित हुई नित्य धावित स्त्रोत में।
सहसा अचिन्तनीय
अदृश्य एक आरम्भ में केन्द्र रच डाला अपना।
विश्व सत्ता बीच में आ झाँकती है,
ज्ञात नहीं इस कौतुक के पीछे कौन है कौतकी।
क्षणिका को लेकर यह असीम का है खेलना,
नव-विकाश के साथ गूंथी है शेष-विनाश की अवहेलना,
मृदंग बज रहा है आलोक में कालका,
चुपके से आती है क्षणिका नव-वधु के वेश में
ढककर मुँह घंूघट से
बुदबुद हार पहने मणिकाका।
सृष्टि में पाती है आसन वह,
अनन्त उसे जताता है अन्त सीमा का आविर्भाव।