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मेरी चेतना में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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मेरी चेतना में
आदि समुद्र भाषा हो रही है ओंकारित;
जानता नहीं अर्थ उसका,
मैं हूं वही वाणी।
केवल छलछल कलकल;
केवल सुर, केवल नृत्य, वेदना का कलकोलाहल;
केवल यह तैरना-
कभी इस पार चलना, कभी उस पार चलना,
कभी अदृश्य गभीरता में
कभी विचित्र के किनारे किनारे।
छन्द के तंरग झूले में झूलते चले जाते हैं,
जाग उठते हैं कितने हाव-भाव, कितने इशारे !
स्तब्ध मौनी अचल के इंगित पर
निरन्तर स्रोत धारा अज्ञात सम्मुख में है धावमान,
कहाँ उसका शेष है, कौन जानता है !
धूप छाया क्षण क्षण में देती रहती है
मुड़-मुड़कर स्पर्श नाना प्रकार के।
कभी दूर, कभी निकट में,
प्रवाह के पट में
महाकाल करता है दो रूप धारण
अनुक्रम से शुभ्र और कृष्ण वर्ण।
बार-बार दक्षिण और वाम में
प्रकाश और प्रकाश की बाधा ये दोनों मिल
अधरा का प्रतिबिम्ब गति भंग में जाती है अंकित कर,
गति-भंग से ढक-ढककर।