भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

है अजीब शहर की ज़िंदगी / बशीर बद्र

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:11, 19 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बशीर बद्र |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhazal...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

है अजीब शहर कि ज़िंदगी, न सफ़र रहा न क़याम है
कहीं कारोबार सी दोपहर, कहीं बदमिज़ाज सी शाम है

कहाँ अब दुआओं कि बरकतें, वो नसीहतें, वो हिदायतें
ये ज़रूरतों का ख़ुलूस है, या मतलबों का सलाम है

यूँ ही रोज़ मिलने कि आरज़ू बड़ी रख रखाव कि गुफ्तगू
ये शराफ़ातें नहीं बे ग़रज़ उसे आपसे कोई काम है

वो दिलों में आग लगायेगा में दिलों कि आग बुझाऊंगा
उसे अपने काम से काम है मुझे अपने काम से काम है

न उदास हो न मलाल कर, किसी बात का न ख्याल कर
कई साल बाद मिले है हम, तिरे नाम आज कि शाम कर

कोई नग्मा धुप के गॉँव सा, कोई नग़मा शाम कि छाँव सा
ज़रा इन परिंदों से पूछना ये कलाम किस का कलाम है