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कैसी मजबूरी है / कांतिमोहन 'सोज़'

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तुम क्या जानो तुम बिन जीना
कैसी मजबूरी है ।
मेरी जान ही लेकर मानेगी
तुमसे जो दूरी है ।
कैसी मजबूरी है ।।

मैं आकुल-व्याकुल डोल रही
दिल किसको दिखलाऊँ
दुख सुनकर हँसते लोग यहाँ
किसको क्या बतलाऊँ
मेरे होठों तक आ न सके
जो बात ज़रूरी है ।
कैसी मजबूरी है ।।

सब जानके तुम अनजान बने
क्या तुमको समझाऊँ
शीशे के जिगर को पत्थर से
कब तक मैं टकराऊँ
तुम सुख-सपनों में लीन हुए
मेरी बात अधूरी है ।
कैसी मजबूरी है ।।

तुम क्या जानो तुम बिन जीना
कैसी मजबूरी है ।
मेरी जान ही लेकर मानेगी
तुमसे जो दूरी है ।
कैसी मजबूरी है ।।