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मैं कैसे धीरज धारूँ री! / स्वामी सनातनदेव

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ध्वनि: व्रज के लोकगीत, कहरवा

मैं कैसे धीरज धारूँ री! मोहिं मोहन की सुधि आवै।
मैं कैसे मनकों मारूँ री! यह विरहा मोहिं सतावै॥
स्याम विना कैसे तनु धारूँ!
कैसे मन की ममता मारूँ।
वाकी कैसे सुरति विसारूँ।
मैं कैसे सुरति विसारूँ री! वह पलहुँ न इत-उत जावै॥1॥
जबसों लखी स्याम की सुखमा।
चढ़ी रहत चितपै वह प्रतिमा।
दीखत कहूँ न वाकी उपमा।
है कहूँ न वाकी उपमा री! वह मन में धूम मचावै॥2॥
यह मन भयो स्याम को चेरो।
यापै कछु अधिकार न मेरो।
स्यामहि को उर रहत बसेरो।
है उरमें स्याम-बसेरो री! मोहि वा बिनु कछु न सुहावै॥3॥
मन तो गयो, नयन ललचावें।
बिनु देखे अति ही अकुलावें।
ललकि-ललकि सखि नीर बहावें।
ये नीर बहावें नयना री! को इनकी प्यास बुझावै॥4॥
अब तो भार भयो यह जीवन।
बिनु मोहन सखि! सोह न तन-मन।
मोहन ही मेरो जीवन-धन।
वा जीवन-धन मोहन बिनु री! यह जीवन कौन बचावै॥5॥
कहा करों कैसे तनु धारांे।
वा छबि पै तन-मन सब वारों।
नयनन और न रूप निहारों।
मैं और न रूप निहारों री! बस-मोहन ही मोहिं भावै॥6॥