भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कैसे दरस-परस तब पाऊँ / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:27, 21 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वामी सनातनदेव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग मुलतानी, तीन ताल 24.9.1974

कैसे दरस-परस तव पाऊँ।
साधन हीन दीन मनमोहन! कैसे करि मैं तुमहिं सुहाऊँ॥
ऐसो कोउ न गुन या जनपै, जाके बल मैं तुमहिं मनाऊँ।
अति गुनहीन हीनमति मोहन! का मुख लै तुव सम्मुख आऊँ॥1॥
पै का करों न मानत यह मन, तुम बिनु अपनो कोउ न पाऊँ।
परी भँवर में नैया भैया! और खेवैया काहि बनाऊँ॥2॥
सदा तिहारो, सदा तिहारो, कैसे तुमहिं प्रतीति कराऊँ।
जानत हो जन के मन की सब, फिर का कहि मैं तुमहिं जनाऊँ॥3॥
जैसो हूँ, हूँ सदा तिहारो, तुमहीकों मन-भवन बसाऊँ।
एक बार तुमहूँ तो कह दो, ‘तू मेरो’ तो हिय पतियाऊँ<ref>विश्वास करूँ</ref>॥4॥
तुम ही सों है लगन ललन अब, और कहाँ जो सीस खपाऊँ।
अपनेकों अपनावत आये, फिर मैं ही निरास क्यों जाऊँ॥5॥

शब्दार्थ
<references/>