राग शुद्ध सारंग, तीन ताल 25.6.1974
जुगलवर सदा एक रस-रूप।
तन-मन को कछु भेद जदपि, पै दोउ चिज्जोति अनूप।
एक हि रस निज रस रसिवेकों भयो स्वयं द्वे रूप।
वे ही स्यामा-स्याम सलौने सुखमा सील स्वरूप॥1॥
विना भाव नहिं रसन होत है, स्यामा भाव-स्वरूप।
रसिकराय श्री स्याम सलौने, स्वयं भये रस-भूप<ref>रसराज, शृंगार</ref>॥2॥
रसमयि स्यामा रसमय मोहन, रसमयि कलि अनूप।
जे-जे रसिक रसहिं यह लीला ते मज्जहिं<ref>डुबकी लगाते हैं</ref> रस-कूप॥3॥
शब्दार्थ
<references/>