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वदन की सुखमा कही न आय / स्वामी सनातनदेव

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राग हमीर, तीन ताल 23.7.1974

वदन की सुखमा कही न जाय।
देखि-देखि हूँ देखन ही कों पुनि-पुनि हिय उमहाय॥
कमल कहों तो नयन-भृंग नित, रहहिं तहीं मँडराय।
चन्द्र कहों तो ये चकोर ह्वै अनत न फिर कहुँ जायँ॥1॥
बिथुरीं अलकावलि सुदेस पै, भ्रमर-भीर सी भायँ।
नयनन की चंचलता में कछु उपमा नई लखाय॥2॥
कमल-कोस जनु परीं मीन द्वै तड़पि-तड़पि रहि जायँ।
त्यों ही रति-रसके लोभी चख<ref>चक्षु, नेत्र</ref> चख-चख<ref>चाख-चाखकर, स्वाद ले लेकर</ref> हूँ अकुलायँ॥3॥
काम कमान सरिस दोउ भृकुटी चितवन बान चलाय।
बींधहिं रसिकन के मन-पंछी निज में तिनहिं लगाय॥4॥
कहा कहें सुखमा वा मुख की, निरखि न नयन अघाय।
निरखन ही नित चहहिं निरन्तर, रहें तहीं उरझाय॥5॥

शब्दार्थ
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