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पत्थर को पूजते थे कि पत्थर पिघल पड़ा / सईद अहमद

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पत्थर को पूजते थे कि पत्थर पिघल पड़ा
पल भर में फिर चट्टान से चश्मा उबल पड़ा

जल थल का ख़्वाब था कि किनारे डुबो गया
तन्हा कँवल भी झील से बाहर निकल पड़ा

आईने के विसाल से रौशन हुआ चराग़
पर लौ से इस चराग़ की आईना जल पड़ा

गुज़रा गुमाँ से ख़त फ़रामोशी यक़ीं
और आइने में सिलसिला अक्स चल पड़ा

मत पूछिए कि क्या थी सदा वो फ़क़ीर की
कहिए सुकूत शहर में कैसा ख़लल पड़ा

बाक़ी रहूँगा या नहीं सोचा नहीं ‘सईद’
अपने मदार से यूँही इक दिन निकल पड़ा