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प्रीतम! तुम मेरे हिय बिलसत हो / स्वामी सनातनदेव

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राग गौड़-मलार कहरवा 30.8.1974

प्रीतम! तुम मेरे हिय बिलसत हो।
हिय की नस-नस मंे रस छायो, रस की रिम-झिम-सी बरसत हो॥
हिय की कली-कली हुलसत है जब रति की कछु गति दरसत हो।
सिहरन सी कछु होत हिये में जब निज सरस सुरति विकसत हो॥1॥
मन के मीत तुमहि मनमोहन! मो मन-बन में नित विहरत हो।
निज विहार के रस उदारसों हिय के सकल कलुष करषत हो॥2॥
मो मन-गगन विमल-बिधु हो तुम रज-तममय<ref>रजोगुण, तमोगुणरूप</ref> रज-तम<ref>धूलि और अन्धकार</ref> विनसत हो।
सुद्ध सत्वमयि निज कौमुदि<ref>चाँदनी, कान्ति</ref> सों रति-रसमयि कुमुदिनि विकसत हो॥3॥
चलत कलित चिन्मयी केलि तब, तासों मन कन-कन सरसत हो।
भयो निहाल लाल! तव रति रसि, रसि-रसि हूँ ताकों तरसत हों॥4॥

शब्दार्थ
<references/>