भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं तो सदा सुहागिन माई / स्वामी सनातनदेव
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:58, 26 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वामी सनातनदेव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)
राग आभोगी, तीन ताल 12.9.1974
मैं तो सदा सुहागिन भाई!
ऐसो वरना बर्यौ न जासों होत कबहुँ मेरी विलगाई।
मनको मन, तन को तन सजनी! प्रानन में जो रह्यौ समाई।
आतमको परमातम मेरो, मोहिं छाँड़ि सो कितहुँ न जाई॥1॥
सब को सब, पै सब सों न्यारो, सब ही में जो रह्यौ लुकाई।
है रस रूप, तदपि रस-लोलुप, रस-रति ताकों सदा सुहाई॥2॥
सब को स्वामी, हूँ सेवा-रत, दाता हूँ माँगत सकुचाई।
प्रियतम हूँ नित प्रीति-भिखारी, कहा कहों ताकी प्रभुताई॥3॥
सबसों दूर सबहि के अन्तर, कालहुँको जो काल कहाई।
अजर-अमर मेरो सखि! साजन, हौं हूँ जाने अमर बनाई॥4॥
शब्दार्थ
<references/>