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प्यारे! जो तुम ठई, भई / स्वामी सनातनदेव

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राग भूपाली, तीन ताल 13.9.1974

प्यारे! जो तुम ठई, भई।
चली न मेरी एक प्रान-निधि! व्यर्थहि व्यथा बई॥
करि-करि वृथा मनोरथ हार्यौ, कलपत वयस गई।
रह्यौ जहाँ को तहाँ न आगे नैकहुँ प्रगति भई॥1॥
जो न चही, पै चही आपने, उपजी बात नई।
अनचाहे हूँ भई पूरती, सो तुम ओट<ref>अपने जिम्मे कर ली</ref> लई॥2॥
अच्छा, करहु सुहाय तुमहिं जो, अपनी कहा गई।
हौं तुम्हार, सब दियो तुमहिने, तुमकों भेट दई॥3॥
अब सब आस-त्रास तजि प्यारे! तुव पद सरन लई।
अपनो ही करि सदा मानियों, जो जस गई, गई॥4॥
मेरो अपनो है न नाथ! कछु, तुम्हरी तुमहि दई।
अपनी या कठपुतरीसों नित कीजै केलि नई॥5॥

शब्दार्थ
<references/>