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सखि! मैं निरखे आजु गोपाल / स्वामी सनातनदेव

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राग परज, कहरवा 18.9.1974

सखि! मैं निरखे आजु गोपाल।
अंग-अंग अंगन में अटके, कहा कहांे मैं हाल॥
नयनन में उरझे ये नयना, साँस गंध में अटकी।
दृष्टि परीं जब असित अलक तो तहीं लटन में लटकी।
पद पंकज में उरझयौ यह मन-मधुकर भयो निहाल॥1॥
नखच्चन्द्र की छटा निरखि ये नयना भये चकोर।
विर में तहीं एकटक सजनी! गये न दूजी ओर।
गल-मुक्तावलि निरखि-निरखि यह ललच्यौ मनो-मराल॥2॥
स्याम वरन अरु विज्जु<ref>बिजली</ref> वसन सखि! घन-दामिनि सम सोहें।
तिनहिं निरखि सिखि<ref>मोर</ref> सम ये लोचन हुलसि अति मोहें।
इन्द्र-धनुष सी वनमाला लखि बरसहिं वारि रसाल॥3॥
अंग-अंग की अनुपम आभा अंग-अंग किमि देखें।
अंग अनन्त नयन है री सखि! विधि सों वही परेखें।
लखें नयन, परखै मन, बरनै किमि वानी वाचाल॥4॥

शब्दार्थ
<references/>