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दूसरा पुष्प / अध्यक्ष से भेंट / आदर्श

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ऊषा दूत अरुणा शिखा की
ध्वनि सुन कर
जागरण पाया,
अरुणाई भरे कवि के नयन ने,
मन में उमंग आयी
गाने लगा गीत उसी स्वर में,
मिला के स्वर अपना।

जगी उत्कंठा,
शीघ्र नित्य कर्म पूरा कर
बैठ गया
सूर्यमुखी की प्रतीक्षा में।

आयी सूर्यमुखी
लावणय भरी देह भर-
धारण किए पीली साड़ी
उल्लास नया नेत्रों में,
मुसकान लहरा रही थी अधरों पर।
बोल पड़ी
चलिये प्रकृति पुत्र!
अध्यक्ष अब आसन पर
होंगे विराजमान,
पहले ही उनसे हमारी भेंट हो ले।
यह कह कर सूर्यमुखी आगे बढ़ी,
कविवर को साथ लिए।
सुन्दर अध्यक्ष भवन
शीघ्र ही दिखलायी पड़ा-
पहरेदार काँटे खड़े
द्वार रक्षा में थे लगे।

देख सूर्यमुखी को
झुक गए, मार्ग दिया उसको।
किन्तु जब देखा एक मानव को
होकर सशक्त खड़े हो गये।
कवि दीन हीन सा
जहाँ था वहाँ ही रुका रह गया।
सूर्यमुखी ने कहा-
हे कवि अधीर मत होना तुम
नियम यहाँ का यही,
जाती हूँ अध्यक्ष पास मैं अभी।
उनकी विशेष आज्ञा लेकर
शीघ्र आती हूँ।
मानव प्रवेश के लिए
है वह आवश्यक।
यह कह गयी वह
और लौटी ले आदेश उनका।
काँटो ने राह छोड़ी
कवि चला सूर्यमुखी साथ बड़े हर्ष्ज्ञ से।

अध्यक्ष सिंहासन
काँटों का दिखलायी पड़ा
जिस पर वे बैठे थे
एक योगी से जमकर आनन्द में विभोर हो।
दोनों जब पहुँचे,
उनके गुलाबी नेत्र
खिल पड़े सहसा,
बोले मधुर वाणी में-
बहन सूर्यमुखी कहो,
कैसे किया कष्ट
प्रातःकाल यहाँ आने का?
कौन ये तुम्हारे साथ
कैसे सहयोग यह मानव से
हो गया तुम्हारा है?

बोली वह सरलता भरे शब्दों में-
”मान्यवर! ये मानवों के प्रतिनिधि हैं,
आये हैं, मानवों के लोक से
और बड़े पीड़ित हैं,
मानवों का अत्याचार और स्वार्थ
देखकर मानवों के ऊपर ही।
जानने को आये हैं,
राज्य शासन व्यवस्था
हमारे नगर की।

ये हैं कवि प्रकृति के,
प्रकृति के आदेश से
ऊषा जीजी के साथ
मेरे पास आये थे।
आप सब समाधान इनका करें
बोले अध्यक्ष तब-
हे कवि! स्वागत तुम्हारा है
सम्मान दिया हमको
इसके लिए भी धन्यवाद तुम्हें देता हूँ।
शांति और सुख की
हमारे यहाँ वृद्धि है,
कारण बताता हूँ,
ध्यान देकर सुनो।

सम्पूर्ण राज्य में
हमारे यहाँ,
पंचशील मान्य है,
कोई राष्ट्र पुष्प संसार में
कितना भी छोटा हो,
कितना भी शक्तिहीन,
किन्तु कोई उस पर
करेगा नहीं आक्रमण,
राज सत्ता मान्य ही रहेगी।

कोई निर्धन हो, नीच हो
धनवान और उच्च द्वारा
नहीं होगा
तिरस्कृत,
सब के समान अधिकार
माने जायंेगे।
जियो और जीने दो,
सुविधायें लो, और-
सुविधाएँ देते चलो,
सभी यहां करते हैं
मित्र का सा,
बन्धु का सा व्यवहार,
आदान और प्रदान
सदा चलता है
द्वार नहीं बंद
कभी होता है
भूख और प्यास से
दुखी जो कभी आते हैं।

भूत यहां पीछा नहीं करता
छुआछूत का
ईर्ष्या, द्वेष, घृणा का
यहाँ नहीं है संचार,
प्रेम का आधार
यहां जीवन का सार है।
इसी से हमारे यहाँ
होते नहीं महायुद्ध।”

अध्यक्ष बातें सुन
कवि ने कहा-महोदय!
मुझे है अपार हर्ष
जान कर, जिस तरह
मौन और नीरव ही
विघ्न बिना
संचालित करते हैं
आप लोग जीवन की शान्ति को,
किन्तु मेरी जिज्ञासा
बढ़ती ही जा रही है,
प्रश्न कितने ही हैं,
जिन्हें सुलझाना है,
करिए तदबीर कुछ
मेरी तृप्ति की।”
अध्यक्ष उत्तर में बोले सूर्यमुखी से-
“देवी, इन्हें ले जाओ
महामंत्री पास।”
“जो आज्ञा”
कह कर यों
सूर्यमुखी ने नमस्कार किया
कवि ने प्रणाम किया,
दोनों ही
अध्यक्ष के यहां से
चले कुलश्रेष्ठ कदंब पास।