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क्षितिज के पुलिन पे / शशि पाधा

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क्षितिज के पुलिन पे
बैठ सूर्य गा रहा
धरा की स्वर्ण आभ को
नयन में सजा रहा

आ खड़ी विदा घड़ी
अनमना सा हो रहा
दिवस की अठखेलियाँ
हृदय में संजो रहा

जाऊँ, कि ना जाऊँ अब
विकल मन से पूछता
असह्य विरह वेदना
निदान कुछ ना सूझता

निहारता गगन की ओर
चाँद मुस्कुरा रहा
प्रश्न चिह्न सा खड़ा
पूछता जा रहा |

नभ के किसी छोर से
साँझ ढलती आ रही
मणि सी नीली नीलिमा
दिशा दिशा बिछा रही

श्यामली अलक खुली
मेघ डगमगा गए
घुल गई थी चन्द्रिमा
दीप जगमगा गए

आह! धरा सजी –धजी
क्यूँ मैं छोड़ जा रहा
खड़ा जो रथ रेख पर
क्यूँ ना रोक पा रहा?

रुका नहीं कोई यहाँ
अथक समय चल रहा
नियति के विधान का
सदैव ही बल रहा

सूर्य हो या चाँद हो
उदय-अस्त भाग्य में
आवागमन की रीत यह
विधि के साम्राज्य में

विधना को मान सूर्य भी
सिंधु में समा रहा
कल उदय की योजना
मन ही मन बना रहा