भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है / गुलज़ार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:45, 29 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलज़ार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNazm}} <po...' के साथ नया पन्ना बनाया)
रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है
रात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहीं
कांच का नीला सा गुम्बद है, उड़ा जाता है
ख़ाली-ख़ाली कोई बजरा सा बहा जाता है
चाँद की किरणों में वो रोज़ सा रेशम भी नहीं
चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती है
और सन्नाटों की इक धूल सी उड़ी जाती है
काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी
हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता है