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सखि! मोहिं स्यामहि स्याम सुहावै / स्वामी सनातनदेव
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राग बागेसरी, तीन ताल 16.8.1974
सखि! मोहिं स्यामहि स्याम सुहावै।
स्याम विना त्रिभुवन में सजनी! मोहिं न अब कछु भावै॥
ऐसो भयो स्याम को टोना तन-मन हूँ की सुरति न आवै।
स्याम-सनेह रँगी अँखियनसों जित देखूँ तित स्याम दिखावै॥1॥
निज-पर को हूँ भेद न सजनी! सब ही स्याम-रूप सरसावै।
स्याम-रूप यह भई त्रिलोकी, कै नैननि ही स्याम बसावै॥2॥
छूट्यौ लोक-वेद सब आली! स्याम मन्त्र ही मो मन भावै।
बन्ध मोच्छ की बाधा छूटी, प्रीति-पंथ ही मोहिं सुहावै॥3॥
लियो हियो यह स्याम-पिया ने, ज्यों चाहे त्यों वही चलावै।
अपने में अपनो न रह्यौ कछु, सब कछु, मोहिं स्याम दरसावै॥4॥
स्याम-संगिनी भई सखी! मैं, और काहु को संग न भावै।
अंग-अंग में स्याम बस्यौ तो और कहो को रंग चढ़ावै॥5॥
शब्दार्थ
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