भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सखि! मोहिं स्यामहि स्याम सुहावै / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:03, 2 दिसम्बर 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग बागेसरी, तीन ताल 16.8.1974

सखि! मोहिं स्यामहि स्याम सुहावै।
स्याम विना त्रिभुवन में सजनी! मोहिं न अब कछु भावै॥
ऐसो भयो स्याम को टोना तन-मन हूँ की सुरति न आवै।
स्याम-सनेह रँगी अँखियनसों जित देखूँ तित स्याम दिखावै॥1॥
निज-पर को हूँ भेद न सजनी! सब ही स्याम-रूप सरसावै।
स्याम-रूप यह भई त्रिलोकी, कै नैननि ही स्याम बसावै॥2॥
छूट्यौ लोक-वेद सब आली! स्याम मन्त्र ही मो मन भावै।
बन्ध मोच्छ की बाधा छूटी, प्रीति-पंथ ही मोहिं सुहावै॥3॥
लियो हियो यह स्याम-पिया ने, ज्यों चाहे त्यों वही चलावै।
अपने में अपनो न रह्यौ कछु, सब कछु, मोहिं स्याम दरसावै॥4॥
स्याम-संगिनी भई सखी! मैं, और काहु को संग न भावै।
अंग-अंग में स्याम बस्यौ तो और कहो को रंग चढ़ावै॥5॥