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माटी का मुझे दुलार मिले / राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल

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माटी का मुझे दुलार मिले
माटी के दीवानों का बस मटमैला-सा प्यार मिले।
माटी के जलते अधरों पर जीवन का सिंचित प्रेम सुहाना
और सुनहले भ्रम के स्वर में छाये मधुमय अमर तराना
प्राण-प्राण में गीत बसा हो, कर में हो सोंधी-सी माटी
एक लहर मस्ती की जागे एक नजर हो मग्न जमाना
धरती के हँसते रंगों से चिर जीवन को आकार मिले।
माटी का मुझे दुलार मिले।

प्रकृति-सना मानव का शैशव, पीड़ा रंजित यौवन की चाहें
दीप मृत्तिका खो विद्युत से प्रतिपल विकल शरीरी आहें
धरती सुत चित्कार सजाता क्रंदित-प्रतिध्वनि युग बिछोह में
प्रशस्त ज्योति की रेखा मिटती, किंतु आज है कुंठित राहें
तो फिर जीवन में मानव को श्रमिकों का आभार मिले।
माटी का मुझे दुलार मिले।

कोलाहल जनरव के संग साँस छूट रही मानव तक की
और सजी संहार कल्पना, काल बन रही जर्जर क्षण की
चल खेतों की ओर कि जिसका पथ सूना श्रृंगार अधूरा
जहाँ जगी साकार साधना वन्दन हो उस स्वर्णिंम कण की
माटी का जीवन जीकर प्यारे माटी का मौन मजार मिले।
माटी का मुझे दुलार मिले।