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स्वप्निल बेटी / शिव कुमार झा 'टिल्लू'

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रात मेरे सपने में आईं
थी वह इक नन्ही परछाईं
क्षण क्रंदन क्षण अश्रु बहाती
क्षण नन्हीं तर्जनी चबाती
अश्रु -लार मिश्रण की सोती
में डूब रही यह गुड़िया रोती
मैं पूछा तुम कौन हो चन्दा?
अपने पिता के गले का फंदा
मेरे आगे और बेटी चार है
पापा का छोटा व्यापार है
अब वस !और इक तनय चाहिए
भवसागर निल मलय चाहिए
फिर ! ब्रह्मा ने भेजा तनुजा
लगा उन्हें संतति नहीं दनुजा
गर्वगृह से मैं जब बाहर आई
तत्क्षण बनी प्राणहीन परछाई...
माँ केँ सर पर कलंक लगाया
कन्या नहीं भ्रूण का कंठ दबाया
ऊपर चित्रगुप्त ने खाता देखा
मेरे एक़ और जन्म का लेखा
फिर मर्त्यलोक जाना होगा
बनकर बेटी पछताना होगा
संग इक वरदान भी गुण लो
अपनी इच्छा से पिता घर चुन लो
अब मुझे बना लो अपनी बेटी
क्या मैं लगूँ आपकी घेंटी?
पर- बेटी को जो अपनाते हैं
अब ऐसे पिता मुझे भाते हैं
डरना मत ! मैं भूत नहीं हूँ
लाक्षागृह का सूत नहीं हूँ
मातृ- छाया की प्यासी मुनियाँ
ढूंढ रही है इक स्नेही दुनिया
बोलो !आप मुझे क्या अपनाएंगें
अगले जन्म में बेटी बना पाएंगे?
जैसे शीतल अश्रु से जंग हुई
मेरी तन्द्रा तत्क्षण भंग हुई.