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मैं और अधिक सच नहीं चाहता / नीलोत्पल

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मैं और अधिक सच नहीं चाहता

मुझे टोकना है ख़ुद को
मैं और अधिक सच नहीं चाहता

यह बात दोहराता हूं
और दूर होता हूं ख़ुद से

यहां जीने के लिए सच ही एक मात्र
उपाय नहीं

मैं लोगों की आवाज़ों में घुलता हूं
बिछता हूं एक दर्रे की तरह
न कोई पहाड़, न पेड़, न आतिश
हम एक जंगल में हैं

हम घुलते हैं एक रंग में
निकलते हैं कई रंगों में बिखरकर

हमारा चेहरा सामान्य नहीं
हम कई सचों को दफ़न कर आए लोग हैं
इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं
धर्म, मोक्ष, काम, जाति एक क़िस्म का भंवर है

यहां कुछ सच नहीं सिवाय इसके कि
हम लड़ना जानते हैं

मैं बात करना चाहता हूं
जिंदगी के उन तमाम दरवाज़ों के बारे में
जो नहीं खुलते किसी भी चाबी से

मेरे कमरे में लकड़ियां बिछी हुई हैं
और मैं दौड़ता हूं एक च्यूटें की तरह
जिधर से भी गुज़रता हूं
घिर जाता हूं
अंततः मकड़ी के जाले में

मैं ये बताना चाहता हूं
मैं घिरा हुआ हूं लोगों से,
उनके ठहरे जमे ख़ामोश आंसुओं से,
रक्त भरी झिल्लीयों के बीच
टूटते रिश्तों से

मैं अपनी क्रूर स्थिति के साथ हूं

नहीं चाहता कि
यह जीवन कांच की तरह आभासी लगने लगे

मुझे टोकना है ख़ुद को
मैं और अधिक सच नहीं चाहता
घृणा नहीं, बैर नहीं
और अधिक वासना नहीं
बस जी लेना चाहता हूं

मेरे आसपास ऐसी सांसें हैं मनुष्यों की
जो चहल-कदमी करती हैं भीतर
वे टोकते हैं, खेद जतलाते हैं
बतलाते हैं जीने के असभ्य नियम
वे परम्परा और लीक से बंधे हैं

यहां हम सभी अपने-अपने
सचों और स्थितियों के साथ हैं
कोई अफसोस नहीं सिवाय इसके कि
हमीं ने बनाए हैं वे जंगल
जहां रक्त और दरख़्त एक साथ उठते हैं
अपनी जड़ों से