बारिश उतार रही थीं अपनी जड़ें / नीलोत्पल
बारिश उतार रही थी अपनी जड़ें
हवा ले आई उस सौंधी गंध को
जो गड़ी थी ज़मीन के भीतर
जहां बारिश उतार रही थी अपनी जडं़
अब शुरु हो गया है एक मौसम
बिना पहर, बिना शांति वाला
अब जो उपजेगा
हम उसमें नहाएंगे अपने गंदले अहसास लेकर
हमारी भूमिका सच के लिए नहीं होगी
गो कि वह भटका हुआ है
हम धरती की तरह खुलेंगे
हमारे अंदर जो जमा है बरसों से
आधा-अधूरा, सतहहीन
वह सर उठायेगा
हमें देखना है
पिछली बार छूट गए
ख़ुत्बे, पत्थर, खुले मैदान
पहाड़, झरने, पगडण्डियां
मृत और कुछ अधूरे बीज,
तैयार हैं किस तरह
बादल हमारे सरों पर हैं
हमें लम्बा अनुभव है एक-दूसरे की
अज्ञानता के बारे में
हम जानना चाहते हैं
इसलिए सर नहीं छिपाते
हम शक्लें बदल-बदल कर मिलते हैं
हम गहरा करते हैं एक-दूसरे को
बारिश हमारी यात्राओं में शामिल नहीं है
यह समझ पाना आसान नहीं कि
जो बन रहा है, जो जडं फेंकी जा रही हैं
गहरे अविवेक वाले जीवन में
हमारी संदिग्ध भूमिका का रचाव
कितना मेल खाता है
बिना हस्ताक्षर वाली इस संधि से