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शुक्रिया / नीलोत्पल

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शुक्रिया सारे कवियों का
जिन्होंने जीवन को नए अर्थों से भर दिया
ऐसे अर्थ जो हमें मालूम नहीं थे
कम विचित्र और नयेपन से सराबोर
वे अब हिस्सा हैं हमारा
हम लौटते हैं घर
जहां इंतज़ार करती है एक बुढ़ी औरत
जिसकी नंगी हथेलियां ढंकी हैं
इत्र और भाप से

शुक्रिया सभी लोगों का
जिन्होंने कहा-
हमसे प्यार करो, युद्ध और समझौता भी
ढलान पर हमारी रफ़्तार तेज़ थी
उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा-
                       किसी लम्बी ख़ामोशी की तरह
जीवन स्मृतियों से ज़्यादा और कुछ नहीं

शुक्रिया गिरती बूंदों का
कुछ नहीं कहा गया उनके बारे में
फिर भी पहाड़, पत्थर, लकड़ी
और हमारे घर गीले थे
जिन्हें असंख्य बूंदों वाले समुद्र से निकाला गया
दुनिया के सबसे बड़े पियानों की तरह बजने के लिए

शुक्रिया तमाम आश्चर्यां का
कि हमने रेत पर घर नहीं बनाए
उड़ते हुए पार नहीं की सड़के
दौड़े नहीं बिजलियों के नंगे तारों पर
हमें तो झूठ ने बचाया
जो पहले ही दूसरी वजह से
भरा था तमाम आश्चर्यों से
हम ज़मीन पर चलते गिर पड़े
घुटने छिले, नाख़ून उखड़ने लगे
तब कहीं जाकर हमने आईना देखा
सारे सच हमारी नैतिक उलझन हैं

शुक्रिया उन घरौंदों का
जिन्होंने हमें अनजान नहीं बने रहने दिया
वहां पहले से ही मौजूद थे
चींटियों के दर
और वे कोने जिन्हें अब भी छुआ जाना बाकी है
हम कुछ नहीं सिवाए उन तस्वीरों के
जो ख़ाली दीवारों पर लटकती हैं
शुक्रिया उन दीवारों का
वरना हम अपनी तस्वीरों से भी
अपरिचित बने रहते