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संतो कहा गृहस्त कहा त्यागी / धरनीदास

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संतो कहा गृहस्त कहा त्यागी।
जहि देखूं तेहि बाहर भीतर, घट घट माया लागी।
माटी की भीत पवन का थंबा, गुन औगुन में छाया।
पांचतत्त आकार मिलाकर, सहजां गिरह बनाया।
मन भयो पिता मनसा भइ माई, दुख सुख दोनों भाई।
आसा तृस्ना बहिनें मिल कर, गृह की सौंज बनाई।
मोह भयो पुरूष कुबुधि भइ घरनी, पांचो लड़का जाया।
प्रकृति अनंत कुटुंबी मिलकर, कलहले बहुत उपाया।
लड़कों के संग लड़की जाई, ताका नाम अधीरी।
बन में बैठी घर घर डोलै स्वारथ संग खपीरी।
पाप पुत्र दोउ पाइ पड़ोसी अनंत बासना नाती।
राग द्वेष का बंधन लागा, गिरह बना उतपाती।
कोइ गृह मांड गिरह में बैठा बैरागी बन वासा।
जन दरिया इक राम भजन बिन, घट घट में घर नासा।