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दोहा / भाग 8 / विक्रमादित्य सिंह विक्रम

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गात गुराई हेम की, दुति सु दुराई देत।
कंज बदन छबि जान अलि, भूलि भाडरै लेत।।71।।

देखि घटा छन छबि छटा, छुटत मुनिन के ध्यान।
बैठी भौहैं तान सखि, क्यों रैहै मन मान।।72।।

अधरन पर बेसर सरस, लुरकत लुरत बिसाल।
राखन हेतु मराल जनु, मुकति चुगावत बाल।।73।।

कहत आन की आन मुख, सुनत आन की आन।
पिय प्यारै चल चाहियै, तिय प्रानन की प्रान।।74।।

लाल लाल लोइन निरखि, लालन के नव बाम।
हाथ आरसी लै लखति, निज लोचन अभिराम।।75।।

कलह करत नेहै करत, तेरी बान सनाम।
कहा चूक है स्याम की, तू ही बाम सुबाम।।76।।

कल न परति हहरति हियै, नए बिरह ब्रजनाथ।
खिन खिन छवि छीजति खरी, खिन खिन मींजति हाथ।।77।।

बिन गुनाह निजनाथ सौं, नाहक भई सरोस।
अनख हिए कत कीजियतु, काहि दीजियतु दोस।।78।।

साजि साज कुंजन गई, लख्यौ न नन्दकुमार।
रही ठौर ठाढ़ी ठगी, जुवा जुबा सौ हार।।79।।

नहिं डोलति खोलति दृगति, सकुच न बोलन बोल।
अमल कमल दल से दुवौ, पीरे परे कपोल।।80।।