दोहा / भाग 8 / रामसहायदास ‘राम’
कलरव करि झुकि श्रुति लगै, रसगाहक चितचोर।
स्यामु बरन सुन्दर सुखद, कुंज बिहारी भोंर।।71।।
चन्द्रहार चम्पाकली, काहि अली पहिराय।
फूलनि हूँ के हार कों, भर सहौ नहिं जाय।।72।।
अँखियाँ अनमिष लेहु लखि, चलन चहत घनस्याम।
निति रहिहो घनस्याम हौं, रस बस आठो जाम।।73।।
लखि हरि रुचि गुरुजन सकुचि, भई पिछोंड़ी नीठि।
दई निरदई नहिं दई, ईठि पीठि मैं दीठि।।74।।
बरसासइत कौ बार है, बर पूजन मिसु लाल।
सुख बर बरसाने चहैं, बरसाने की बाल।।75।।
पाय लगों छोरों न अब, हायल नन्दकुमार।
छूटत हीं घायल करै, छरकायल यै बार।।76।।
यौं बाजूबँद मैं भली, छबियनि झुमका झोंरि।
कनकलता मानहु फली, मरकत मनि की घोंरि।।77।।
बन्धुजीव लागैं मलिन, भागैं बिम्ब प्रबाल।
बाल अधर को लाल लखि, नलिन कृसित कृस लाल।।78।।
चंदकला कै चंचला, कै चंपे की माल।
कै चामीकर की छरी, सुछवि भरी कै बाल।।79।।
रोम तनै तन मैं घने, स्वेदकने घन माथ।
नोके नारी देखिए, थरथरात हैं हाथ।।80।।