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दोहा / भाग 10 / रामचरित उपाध्याय

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स्वारथ लगि सब कहँ सबै, परसंसहिं अनुरागि।
तियमुख चूमत चंद कहि, मरे देत मुख आगि।।91।।

सपनेहु चहिय न मुक्ति पद, नहिं सुर जुवति विलास।
है केवल मेरे हियैं, राम नाम जल प्यास।।92।।

कौतुक, बस तिसु, काम बस, युवा, लोभ-बल बृद्ध।
प्रेम बिवस रघुनंस मनि, साखी सबरी गिद्ध।।93।।

प्रात भयौ, सन्ध्या भई, बीती निस फिर प्रात।
यतिबिधि छीजत आयु है, काहुन जान्यौ जात।।94।।

गुरु कीन्हें को फल कहा, जो न न मिट्यो संदेह।
छतरी धारै सीस क्यौं, जी जल भीजे देह।।95।।

निरधन, दीन, मलीन, अति, गर्व सहित धनवन्त।
सदा सुखी बिचरहिं महीं, लहि सन्तोषहिं सन्त।।96।।

राम मातु, पितु राम, गुरु राम, धरा धन धाम।
जोग छेम ममराम हैं, नहिं दूजे ते काम।।97।।

सब साधन तजि राम जपु, प्रीति-प्रतीति समेत।
मन अनमन क्यौं होत तैं, सुखद सिखावन देत।।98।।

ब्रज की रज पै लोटिकै, तरनि तनूजा तीर।
कब देवन ललचाइ है, मेरौ अधम सरीर।।99।।

बर-दायक बर दीजियै, अभय कीजियै राम।
अपनौ गेह बनाइयै, प्रभु मेरे हिय धाम।।100।।