दोहा / भाग 6 / हरिप्रसाद द्विवेदी
निज भाषा निज भाव निज, असन-बसन निज चाल।
तजि परता निजता गहूँ, यह लिखियौ बिधि भाल।।51।।
पराधीनु केहि काम कौ, जो सुर पति सम होय।
सतत सुखी स्वाधीन ही, धनि जगती तल कोय।।52।।
सिव विरंचित हरि लोकहूँ, विपति सुनावै रोय।
पै स्वदेस-बिद्रोहि को, सरनु न दैहै कोय।।53।।
मेघनाथ महितल गिर्यो, सुनि मारुति हुँकार।
कदूं तूह कहुं धनु पर्यो, कहुं कृपान, कहुं ढ़ार।।54।।
गहि मेरो कर रुकमिनी, मति काँपै घबराय।
दूंगो प्रति पच्छीनु के, पच्छनु काटि गिराय।।55।।
धन्य उत्तरा-उर-धनी, धन्य सुभद्रा-नन्द।
धनि भारत-भट अग्रनी, पार्थ-पयोनिधि चन्द।।56।।
रहौ न केते पाण्डुसुत, बुधि बल बिक्रम सीम।
द्रौपदि-बेनी-बाँधिबो, जानतु पै इक भीम।।57।।
गई न धँसि पाताल तूँ, लखि द्रौपदि पट हीन।
धिक दिल्ली दुरभागिनी, दिन-दिन-दीन अधीन।।58।।
दियो उलटि साम्राज्य तैं, करि अशक्य हू शक्य।
नीति-बीरता में तूहीं, कुशल एक चाणक्य।।59।।
जासु समर हुंकार तें, काँपतु विश्व विराट।
सेल्यूकस करि केहरी, जयतु गुप्त सम्राट।।60।।