दोहा / भाग 7 / रामेश्वर शुक्ल ‘करुण’
तरुणाई की तरुणिमा, भरे अरुणिमा अंग।
आह! जरा सब रंग वे, बिनसाये करि तंग।।61।।
सुघर गात, साहस प्रबल, रहित बिकार बिषाद।
मन ह्वै जात अजौं वहै, बा तरुणाई याद।।62।।
नित खवाय बहु बस्तु भलि, बदन बनायो चारु।
चिता जरायो सो पिता, चुनि चुनि चन्दन चारु।।63।।
पूजित भयो जहान जो, बुद्ध-पदाम्बुज धार।
आह अचानक आजु सो, खँडहर बनो बिहार।।64।।
करि-करि भिक्षु बिहार जहँ, सरसायो सुखसार।
साँची कहौं बिहार! हौ, अब तुम वहै बिहार।।65।।
वह भारत की बाटिका, वह बैशाली शान।
वह मिथिला-सी सुस्थली, चली रसातल जान।।66।।
बिलबिलाहिं बहु बाल कहुँ जननी, कहुँ कल पाहिं।
कहुँ रोटी द्वै ढूक-हित, जरठ परे रिरिआहिं।।67।।
देखि विसमता-बस बढ़े, अमित अनीति अकाज।
समदरसी करतार मनु, सबहिं कियो सम आज।।68।।
छै छाता आकाश को, बिदरी भूमि बिछाय।
योगी कृषक बिहार के, बैठे अलख जगाय।।69।।
कहाँ जायँ, कासों कहैं, करुन कहानी रोय।
काम कि आवै कोय जब बाम विधाता होय।।70।।