भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मन में छलकी छवि न तिहारी / स्वामी सनातनदेव
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:31, 7 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वामी सनातनदेव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)
राग कलावती, तीन ताल
मन में छल की छवि न तिहारी।
कहा कहों हौं दरस-परस की सपनेहुँ नैंकु न झलक निहारी।
ऐसी कहा परो हठ प्यारे! तरसत ही बीती वय सारी।
तुम बिनु और न चहों कबहुँ कछु, फिर क्यों निठुर भये गिरिधारी॥1॥
तुव पद-रति ही है मति मेरी, दूजी बात न कबहुँ विचारी।
तोहूँ तुम यों तरसावत हो, कैसी उलटी चाल तिहारी॥2॥
तरसहिं नैन रैन-दिन मोहन! मनहूँ पल-पल होत दुखारी।
जीवन की संध्या नियराई, तदपि न पूजी आस हमारी॥3॥
कबलों यों तरसावहुगे प्रिय! तुम यह कहा नीति निरधारी।
अपनेकों अपनावन ही क्यों भयो बीर! तुमकों यों भारी॥4॥
कहि-कहि हूँ का होत प्रानधन! जानत हो जिय की तुम सारी।
अब जो तुमहिं सुहाय करहु सो, मेरे तो तुम ही बनवारी!॥5॥